History Of Mahalaya : महालया: दुर्गा पूजा की शुरुआत का इतिहास

bholanath biswas
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महालया का इतिहास बंगाल और समग्र भारतीय उपमहाद्वीप की सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराओं से गहराई से जुड़ा हुआ है। यह दुर्गा पूजा की शुरुआत का प्रतीक होता है और दुर्गा पूजा से लगभग एक सप्ताह पहले मनाया जाता है। महालया का मुख्य उद्देश्य मां दुर्गा का स्वागत करना और उनके आगमन की तैयारी करना है। हालांकि इसका धार्मिक पहलू प्रमुख है, महालया का सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्व भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।

### प्राचीन काल से महालया की उत्पत्ति

महालया की परंपरा की जड़ें भारतीय धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं में गहराई तक फैली हुई हैं। यह मान्यता है कि इस दिन देवी दुर्गा कैलाश पर्वत से अपने मायके (पृथ्वी) पर आती हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार, जब राक्षस महिषासुर ने देवताओं को पराजित कर स्वर्ग पर अधिकार कर लिया, तब सभी देवताओं ने मिलकर एक शक्तिशाली देवी का सृजन किया — देवी दुर्गा। महालया के दिन इस देवी की आराधना का आरंभ किया जाता है, क्योंकि यह वही समय है जब देवी दुर्गा महिषासुर का वध करने के लिए स्वर्ग से पृथ्वी पर अवतरित होती हैं।

इस दिन, पितरों (पूर्वजों) को जल अर्पण करने की परंपरा भी है, जिसे "तर्पण" कहा जाता है। इसे एक तरह से पितरों की आत्माओं के लिए शांति और मोक्ष प्राप्ति की प्रक्रिया माना जाता है। धार्मिक दृष्टि से महालया का यह तर्पण महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि इसे श्राद्ध पक्ष के अंतिम दिन मनाया जाता है।

### आधुनिक महालया की शुरुआत और बीरेंद्र कृष्ण भद्र का योगदान

महालया के आधुनिक स्वरूप का श्रेय बीरेंद्र कृष्ण भद्र को दिया जाता है, जिन्होंने 1930 के दशक में इसे एक नया सांस्कृतिक आयाम प्रदान किया। भद्र का महिषासुर मर्दिनी नामक एक रेडियो कार्यक्रम बंगाल में बेहद लोकप्रिय हो गया। यह एक घंटे का रेडियो प्रसारण होता था, जिसमें संस्कृत श्लोकों, गीतों और नाटकीय वर्णन के साथ देवी दुर्गा और महिषासुर के युद्ध की गाथा सुनाई जाती थी।

बीरेंद्र कृष्ण भद्र की आवाज़ और उनके द्वारा प्रस्तुत की गई महिषासुर मर्दिनी की कथा ने बंगाली समाज में एक विशेष स्थान प्राप्त किया। यह कार्यक्रम महालया के दिन सुबह बहुत ही श्रद्धा और उत्साह के साथ सुना जाता है। आज भी इस कार्यक्रम को लोग रेडियो पर या विभिन्न माध्यमों पर सुनते हैं, और यह बंगाली समाज का एक अहम हिस्सा बन चुका है।

### महालया का धार्मिक महत्व

धार्मिक दृष्टिकोण से महालया का मुख्य महत्व देवी दुर्गा के आगमन से जुड़ा हुआ है। इस दिन से दुर्गा पूजा की तैयारियां शुरू हो जाती हैं। यह दिन अश्विन महीने की अमावस्या को पड़ता है, जिसे "महालय अमावस्या" कहते हैं। मान्यता है कि महालया के दिन से देवी दुर्गा कैलाश पर्वत से पृथ्वी की ओर प्रस्थान करती हैं, और इसके सात दिन बाद दुर्गा पूजा का आरंभ होता है।

धार्मिक अनुष्ठानों में तर्पण की परंपरा का विशेष महत्व है। इस दिन लोग गंगा नदी या अन्य पवित्र जल स्रोतों पर जाकर अपने पूर्वजों को जल अर्पित करते हैं। पितरों का तर्पण करने से उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है और यह परिवार के लिए शुभ फलदायी माना जाता है।

### सांस्कृतिक महत्व

महालया सिर्फ एक धार्मिक त्योहार नहीं है, बल्कि यह बंगाली संस्कृति और लोक परंपराओं का एक महत्वपूर्ण हिस्सा भी है। यह दिन बंगाली समाज में नए साल की शुरुआत के रूप में देखा जाता है, क्योंकि इसके बाद दुर्गा पूजा, जो बंगाल का सबसे बड़ा त्योहार है, मनाया जाता है। महालया के साथ ही कला, संगीत और साहित्यिक प्रस्तुतियों की शुरुआत भी होती है, जो दुर्गा पूजा के साथ जुड़ी होती हैं। 

### समकालीन महालया

समकालीन समय में महालया का रूप काफी बदल गया है, लेकिन इसकी परंपराएं और महत्व अब भी बरकरार हैं। पहले जहां लोग रेडियो पर महिषासुर मर्दिनी को सुनते थे, वहीं अब लोग इसे टेलीविजन और डिजिटल माध्यमों पर देखते और सुनते हैं। इसके बावजूद, बीरेंद्र कृष्ण भद्र की आवाज़ और उनकी प्रस्तुति को आज भी एक विशेष स्थान प्राप्त है।

महालया के दिन लोग सुबह जल्दी उठते हैं, पवित्र स्नान करते हैं और अपने पूर्वजों का तर्पण करते हैं। इसके साथ ही, इस दिन दुर्गा पूजा के पंडालों में मां दुर्गा की मूर्तियों की आंखों को बनाने की प्रक्रिया शुरू होती है, जिसे "चक्षुदान" कहते हैं। इसे बहुत ही शुभ और धार्मिक रूप से महत्वपूर्ण माना जाता है।

### निष्कर्ष

महालया बंगाली संस्कृति, धर्म और परंपराओं का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह न केवल मां दुर्गा के आगमन का संकेत देता है, बल्कि पितरों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का भी अवसर प्रदान करता है। महालया की यह परंपरा आज भी अत्यधिक उत्साह और श्रद्धा के साथ मनाई जाती है, और यह बंगालियों के धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन का अभिन्न अंग है।

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